श्रीमद्‍भगवद्‍गीता - पंद्रहवाँ अध्याय ( Shrimad Bhagavad Geeta - Fifteenth Chapter ) {in Hindi}

 पंद्रहवाँ अध्यायः पुरुषोत्तमयोग


चौदहवें अध्याय में, श्लोक 5 से 19 तक एक व्यापक अन्वेषण सामने आता है, जिसमें तीन गुणों-सत्व, रज और तम की प्रकृति का पता चलता है। इस विस्तृत विश्लेषण में उनके कार्य, उनके द्वारा लगाए गए बंधन के तरीके और एक बंधे हुए इंसान की सर्वोत्तम और मध्यस्थ गतिविधियों सहित विभिन्न गतिविधियों को शामिल किया गया है। कथा इन गुणों को पार करके दिव्य चेतना प्राप्त करने से जुड़े समाधान और परिणामों का अनावरण करने के लिए आगे बढ़ती है, जो विशेष रूप से श्लोक 19 और 20 में उल्लिखित हैं। अर्जुन की पूछताछ का जवाब देते हुए, 22वें से 25वें श्लोक गुणातीत पुरुष की विशेषताओं और आचरण पर प्रकाश डालते हैं। गुणों के प्रभाव से परे। 26वाँ श्लोक ब्रह्म प्राप्ति के लिए अर्हता प्राप्त करने के लिए एक सीधा मार्ग प्रस्तुत करता है - विशेष रूप से सगुण परमेश्वर की ओर निर्देशित भक्ति और गुणों के प्रभाव को पार करना।


अब पंद्रहवें अध्याय को शुरू करते हुए, ध्यान सर्वोच्च भगवान के गुणों, प्रभाव और स्वरूप को चित्रित करने पर केंद्रित हो गया है। प्राथमिक उद्देश्य अनन्य भक्ति और प्रेम जगाना है। गुणों के प्रभाव को पार करने का प्रमुख साधन त्याग और ईश्वर के प्रति समर्पण के रूप में पहचाना जाता है। सांसारिक क्षेत्र से त्याग की भावना पैदा करने के लिए, भगवान एक रूपक प्रतिनिधित्व का उपयोग करते हैं, प्रारंभिक तीन छंदों में दुनिया को एक पेड़ के रूप में वर्णित करते हैं और इसके संबंधों को तोड़ने के लिए त्याग के हथियार का उपयोग करने का आग्रह करते हैं।









।। अथ पंचदशोऽध्यायः ।।

श्रीभगवानुवाच

ऊर्ध्वमूलमधःशाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम्।

छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित्।।1।।



भावार्थ - श्री भगवान बोलेः आदिपुरुष परमेश्वररूप मूलवाले और ब्रह्मारूप मुख्य शाखावाले जिस संसाररूप पीपल के वृक्ष को अविनाशी कहते हैं, तथा वेद जिसके पत्ते कहे गये हैं – उस संसाररूप वृक्ष को जो पुरुष मूलसहित तत्त्व से जानता है, वह वेद के तात्पर्य को जानने वाला है।(1)



अधश्चोर्ध्वं प्रसृतास्तस्य शाखा गुणप्रवृद्धा विषयप्रवालाः।

अधश्च मूलान्यनुसंततानि कर्मानुबन्धीनि मनुष्यलोके।।2।।



भावार्थ - उस संसार वृक्ष की तीनों गुणोंरूप जल के द्वारा बढ़ी हुई और विषय-भोगरूप कोंपलोंवाली देव, मनुष्य और तिर्यक् आदि योनिरूप शाखाएँ नीचे और ऊपर सर्वत्र फैली हुई हैं तथा मनुष्यलोक में कर्मों के अनुसार बाँधनेवाली अहंता-ममता और वासनारूप जड़ें भी नीचे और ऊपर सभी लोकों में व्याप्त हो रही हैं।(2)



न रूपमस्येह तथोपलभ्यते

नान्तो न चादिर्न च सम्प्रतिष्ठा।

अश्वत्थमेनं सुविरुढमूल-

मसङ्गशस्त्रेण दृढेन छित्वा।।3।।

ततः पदं तत्परिमार्गितव्यं

यस्मिन्गता न निवर्तन्ति भूयः।

तमेव चाद्यं पुरुषं प्रपद्ये

यतः प्रवृत्तिः प्रसूता पुराणी।।4।।



भावार्थ - इस संसार वृक्ष का स्वरूप जैसा कहा है वैसा यहाँ विचारकाल में नहीं पाया जाता, क्योंकि न तो इसका आदि है और न अन्त है तथा न इसकी अच्छी प्रकार से स्थिति ही है। इसलिए इस अहंता-ममता और वासनारूप अति दृढ़ मूलों वाले संसाररूप पीपल के वृक्ष को वैराग्यरुप शस्त्र द्वारा काटकर। उसके पश्चात् उस परम पदरूप परमेश्वर को भली भाँति खोजना चाहिए, जिसमें गये हुए पुरुष फिर लौटकर संसार में नहीं आते और जिस परमेश्वर से इस पुरातन संसार-वृक्ष की प्रवृत्ति विस्तार को प्राप्त हुई है, उसी आदिपुरुष नारायण के मैं शरण हूँ – इस प्रकार दृढ़ निश्चय करके उस परमेश्वर का मनन और निदिध्यासन करना चाहिए।(3,4)



निर्मानमोहा जितसङ्गदोषा

अध्यात्मनित्या विनिवृत्तकामाः।

द्वन्द्वैर्विमुक्ताः सुखदुःखसंज्ञै-

र्गच्छन्त्यमूढाः पदमव्ययं तत्।।5।।



भावार्थ - जिसका मान और मोह नष्ट हो गया है, जिन्होंने आसक्तिरूप दोष को जीत लिया है, जिनकी परमात्मा के स्वरुप में नित्य स्थिति है और जिनकी कामनाएँ पूर्णरूप से नष्ट हो गयी हैं- वे सुख-दुःख नामक द्वन्द्वों से विमुक्त ज्ञानीजन उस अविनाशी परम पद को प्राप्त होते हैं।(5)



न तद् भासयते सूर्यो न शशांको न पावकः।

यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम।।6।।



भावार्थ - जिस परम पद को प्राप्त होकर मनुष्य लौटकर संसार में नहीं आते, उस स्वयं प्रकाश परम पद को न सूर्य प्रकाशित कर सकता है, न चन्द्रमा और अग्नि ही। वही मेरा परम धाम है।(6)



ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः।

मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति।।7।।

शरीरं यदवाप्नोति यच्चाप्युतक्रामतीश्वरः।

गृहीत्वैतानि संयाति वायुर्गन्धानिवाशयात्।।8।।

श्रोत्रं चक्षुः स्पर्शनं च रसनं घ्राणमेव च।

अधिष्ठाय मनश्चायं विषयानुपसेवते।।9।।



भावार्थ - इस देह में यह सनातन जीवात्मा मेरा अंश है और वही इस प्रकृति में स्थित मन और पाँचों इन्द्रियों को आकर्षित करता है।(7)

वायु गन्ध के स्थान से गन्ध को जैसे ग्रहण करके ले जाता है, वैसे ही देहादि का स्वामी जीवात्मा भी जिस शरीर का त्याग करता है, उससे इस मन सहित इन्द्रियों को ग्रहण करके फिर जिस शरीर को प्राप्त होता है- उसमें जाता है।(8)

यह जीवात्मा श्रोत्र, चक्षु और त्वचा को तथा रसना, घ्राण और मन को आश्रय करके- अर्थात् इन सबके सहारे से ही विषयों का सेवन करता है।(9)



उत्क्रामन्तं स्थितं वापि भुंजानं वा गुणान्वितम्।

विमूढा नानुपश्यन्ति ज्ञानचक्षुषः।।10।।



भावार्थ - शरीर को छोड़कर जाते हुए को अथवा शरीर में स्थित हुए को अथवा विषयों को भोगते हुए को इस प्रकार तीनों गुणों से युक्त हुए को भी अज्ञानीजन नहीं जानते, केवल ज्ञानरूप नेत्रोंवाले विवेकशील ज्ञानी ही तत्त्व से जानते हैं।(10)



यतन्तो योगिनश्चैनं पश्यन्त्यात्मन्यवस्थितम्।

यतन्तोऽप्यकृतात्मानो नैनं पश्यन्त्यचेतसः।।11।।



भावार्थ - यत्न करने वाले योगीजन भी अपने हृदय में स्थित इस आत्मा को तत्त्व से जानते हैं किन्तु जिन्होंने अपने अन्तःकरण को शुद्ध नहीं किया है, ऐसे अज्ञानीजन तो यत्न करते रहने पर भी इस आत्मा को नहीं जानते।(11)



यदादित्यगतं तेजो जगद्भासयतेऽखिलम्।

यच्चन्द्रमसि यच्चाग्नौ तत्तेजो विद्धि मामकम्।।12।।



भावार्थ - सूर्य में स्थित जो तेज सम्पूर्ण जगत को प्रकाशित करता है तथा जो तेज चन्द्रमा में है और जो अग्नि में है- उसको तू मेरा ही तेज जान।(12)



गामाविश्य च भूतानि धारयाम्यहमोजसा।

पुष्णामि चौषधीः सर्वाः सोमो भूत्वा रसात्मकः।।13।।



भावार्थ - और मैं ही पृथ्वी में प्रवेश करके अपनी शक्ति से सब भूतों को धारण करता हूँ और रसस्वरूप अर्थात् अमृतमय चन्द्रमा होकर सम्पूर्ण औषधियों को अर्थात् वनस्पतियों को पुष्ट करता हूँ।(13)



अहं वैश्वानरो भूत्वा प्राणिना देहमाश्रितः।

प्राणापानसमायुक्तः पचाम्यन्नं चतुर्विधम्।।14।।



भावार्थ - मैं ही सब प्राणियों के शरीर में स्थिर रहने वाला प्राण और अपान से संयुक्त वैश्वानर अग्निरूप होकर चार प्रकार के अन्न को पचाता हूँ।(14)



सर्वस्य चाहं हृदि संनिविष्टो

मत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च।

वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्यो

वेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम्।।15।।



भावार्थ - मैं ही सब प्राणियों के हृदय में अन्तर्यामी रूप से स्थित हूँ तथा मुझसे ही स्मृति, ज्ञान और अपोहन होता है और सब वेदों द्वारा मैं ही जानने के योग्य हूँ तथा वेदान्त का कर्ता और वेदों को जानने वाला भी मैं ही हूँ।(15)



द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च।

क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते।।16।।



भावार्थ - इस संसार में नाशवान और अविनाशी भी ये दो प्रकार के पुरुष हैं। इनमें सम्पूर्ण भूतप्राणियों के शरीर तो नाशवान और जीवात्मा अविनाशी कहा जाता है।(16)



उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः परमात्मेत्युदाहृतः।

यो लोकत्रयमाविश्य बिभर्त्यव्यय ईश्वरः।।17।।



भावार्थ - इन दोनों से उत्तम पुरुष तो अन्य ही है, जो तीनों लोकों में प्रवेश करके सबका धारण-पोषण करता है तथा अविनाशी परमेश्वर और परमात्मा- इस प्रकार कहा गया है।(17)



यस्मात्क्षरमतीतोऽहमक्षरादपि चोत्तमः।

अतोऽस्मि लोके वेदे च प्रथितः पुरुषोत्तमः।।18।।



भावार्थ - क्योंकि मैं नाशवान जड़वर्ग क्षेत्र से सर्वथा अतीत हूँ और अविनाशी जीवात्मा से भी उत्तम हूँ, इसलिए लोक में और वेद में भी पुरुषोत्तम नाम से प्रसिद्ध हूँ।(18)



यो मामेवमसंमूढो जानाति पुरुषोत्तम्।

स सर्वविद्भजति मां सर्वभावेन भारत।।19।।



भावार्थ - भारत ! जो ज्ञानी पुरुष मुझको इस प्रकार तत्त्व से पुरुषोत्तम जानता है, वह सर्वज्ञ पुरुष सब प्रकार से निरन्तर मुझ वासुदेव परमेश्वर को ही भजता है।(19)



इति गुह्यतमं शास्त्रमिदमुक्तं मयानघ।

एतद् बुद्ध्वा बुद्धिमान्स्यात्कृतकृत्यश्च भारत।।20।।



भावार्थ - हे निष्पाप अर्जुन ! इस प्रकार यह अति रहस्ययुक्त गोपनीय शास्त्र मेरे द्वारा कहा गया, इसको तत्त्व से जानकर मनुष्य ज्ञानवान और कृतार्थ हो जाता है।(20)



ॐ तत्सदिति श्रीमद् भगवद् गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे

श्रीकृष्णार्जुनसंवादे पुरुषोत्तमयोगो नाम पंचदशोऽध्यायः ।।15।।


भावार्थ - इस प्रकार उपनिषद, ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्र रूप श्रीमद् भगवद् गीता के

श्रीकृष्ण-अर्जुन संवाद में पुरुषोत्तमयोग नामक पंद्रहवाँ अध्याय संपूर्ण हुआ।